Tuesday, October 13, 2009


विस्तारवादी चीन
की नजर उत्तराखंड की सीमा पर भी

· उत्तराखंड स्थित बाडाहोती, काश्मीर व अरुणांचल की सीमाओं पर आए दिन होता है विवाद
· चीन के नेपाल से बढ़ते मधुर संबंध बन सकता है खतरा
· उत्तराखंड की सीमाओं से बढ़ते पलायन से खाली होते जा रहे है सीमावर्ती गाव


भारत का पाकिस्तान के बाद सबसे अधिक सीमा विवाद विस्तारवादी चीन के साथ है । उत्तराखंड, काश्मीर व अरुणांचल प्रदेश से लगाने वाली सीमाओं पर चीन हमेशा गतिविधियाँ करते रहता है. जिस कारण चीन के साथ आए दिन सीमा विवाद होते रहता है। वह हमेशा से ही इन क्षेत्र को अपना हिस्सा मानता आया है। उत्तराखंड की सीमाओं पर भी चीन की नजर है । इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियाँ खतरे की और संकेत कर रही है । वही उत्तराखंड की सीमाओं से बढ़ते पलायन से सीमा संकट और गहरा गया है।
उत्तराखंड नेपाल व चीन दो देशों की सीमाओं से घिरा हुआ है। चीन से उत्तराखंड की जाड गंगा के दक्षिण पश्चिम से लिपुलेख पास तक लगभग ४११ किलो मीटर लम्बी सीमा लगती है। उत्तराखंड की सीमा को चीन से ११ दर्रे (पास) मुइल्न्ग ला, मन्ना, निति, तुन्जुग ला, मार्थिला, सहशाला, बालाछा धुर, कुगरी बिगिरी, दारमा, लम्पिया धुर व लिपुलेख जोड़ते है। प्रदेश के उत्तरकाशी जिले में ४५० वर्ग किलो मीटर क्षेत्रफ़ल में स्थित बाडाहोती नामक स्थान पर चीन अपना अधिकार जताता है। आई दिन चीन इस इलाके में अतिक्रमण करते रहता है। कई बार इस नो मेंस लैंड पर चीन की सेनाए चहलकदमी करती रहती है। सब जानने के बाद भी सरकार बेबस ही दिखाई दे रही है। सामरिक दृष्टि से देखे तो चीन भारतीय सीमाओं पर अपनी स्तिथि लगातार मजबूत करते जा रहा है। जिससे उत्तराखंड की सीमा भी सुरक्षित नही है। जहाँ चीन ने इन सीमाओं पर सड़क, हाइवे व एअर बेस बना लिए है, वही राज्य चीन की सीमाओं से कोसों दूर है। अभी भी चीन सीमा पर पहुचने के लिए ५० से ७० किलो मीटर की दुर्गम पहाडिया व दर्रे पार करने पड़ते है, जबकि चीन को भारतीय सीमा पर घुसने में चंद मिनट का ही समय लगता है। चीन ने उत्तरकाशी जिले में स्थित बाडाहोती (नो मेंस लैंड ) को जोड़ने वाले दर्रे तुन्जुग ला, पिथोरागद के लिपुलेख तक हाइवे सहित कई दर्रों तक सड़के पंहुचा दी है.
रक्षा विशेषग्य सेवा निवृत्त ले. जे मोहन चंद्र भंडारी ने बताया की चीन व नेपाल सीमा से लगे होने के कारण उत्तराखंड सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। अगर समय रहते हमने अपनी सीमाओं को मजबूत नही किया तो आने वाले समय पर चीन आसानी से उत्तराखंड की सीमाओं पर अतिक्रमण कर सकता है। उन्होंने बताया की चीन ने भारत को घेरने के लिए नेपाल से भी संबंध प्रगांड कर दिए है। भारत को घेरने के लिए उसने नेपाल की राजधानी काठमांडू व पोखरा तक हाइवे बना लिया है। उत्तराखंड, कश्मीर व अरुणांचल प्रदेश तीनोँ सीमाओं पर चीन की स्थिति भारत से मजबूत है। वही पलायन से पहाड़ की सीमाए भी असुरक्षित होती जा रही है। श्री भंडारी ने कहा की अगर समय रहते उतराखंड की दुर्गम सीमाओं को देखते हुई कोई ठोस सामरिक निति नही बनाई गई तो भयानक परिणाम सामने आयेंगे.

सीमाओं से लगे गांवों से हो रहा पलायन खतरे का संकेत
उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों से लगातार बढ़ रहा पलायन खतरे की और संकेत कर रहा है. चीन की ४११ व नेपाल की ३१५ किलो मीटर सीमा से लगे ६० फीसदी गाँव खाली हो चुके है। चीन सीमा से लगे चोदास, दारमा, व्यास, जोहार, निति, माना घाटियों के कई गाँव तो खाली हो गए है। इन क्षेत्रों में रहने वाले अन्य ग्रामीण भी धीरे-धीरे गांवों को खाली कर रहे है। यहाँ रहने वाले वासिंदों का कहना है के मूलभूत सुविधाओं बिजली, पानी, सड़क के अभाव में वह गाँव छोड़ने को मजबूर है। शासन प्रसाशन भी लगातार खाली होते गावों को आबाद कराने में असफल ही दिख रही है। अगर यही रहा तो वह दिन दूर नही जब हमारी सीमाए पूरी तरह खाली हो जाएगे.

Monday, October 12, 2009

प्रकृति का तांडव







श्रद्धांजलि
2009 में उत्तराखंड राज्य के पिथोरागढ़ जिले स्थित मुनस्यारी तहसील के ला, झेकिला गाव में हुई आपदा में ४२ लोग मारे गए। यह पिछले एक दसक में हुई सबसे बड़ी घटना है। इससे पहले १९९८ में पिथोरागढ़ जिले स्थित धारचुला तहसील के मालपा नामक पर ऐसी त्रादसी घटी थी.

Saturday, October 10, 2009

vanarawat













विलुप्ति की कगार पर आदिम जनजाति वनरावत या वनराजी
· उत्तराखंड के पिथोरागढ़ व चम्पावत जिले में कुल ५२६ है इनकी आबादी

उत्तराखंड के पिथोरागढ़ व चम्पावत जिले में निवास कराने वाली आदिम जनजाति वनराजी आज विलुप्ति के कगार पर है. वन राजियोँ में मृत्यु दर अधिक होने के कारण इनके आबादी लगातार घटती जा रही है. अगर समय रहते कोई कारगर कदम नही उठाए गए तो विसिस्ट सामाजिक, सांस्कृतिक, एतिहासिक विसिस्त्ताए सजोए आदिम जनजाति एक दिन विलुप्त हो जाएगी.
भारत में ४२७ जनाजातीया निवास कराती है, इन जनजातियों में से ७४ को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है. ऐसी ही एक आदिम जनजाति वनराजी मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड में निवास कराती है. वन राजियोँ को १९६७ में जनजाति का दर्जा दिया गया और १९७५ में आदिम जनजाति की क्षरेद्नी में शामिल किया गया. वनराजी उत्तराखंड के दो जिलों पिथोरागढ़ के किमखोला, गैनागोँ, चिपल्तारा, भिक्तारुवा, कुताचुरानी, कत्युला, मदनपुरी, जमातादी, औलात्दी व चम्पावत जिले में खिर्द्वारी नमक स्थान पर निवास करते है. इन दो जिलों में इनके १४३ परिवार निवास करते है, जिनकी आबादी ५९२ है. वन राजियोँ में मृत्यु दर अदिक होने के कारण आज लगातार खत्म होने के कगार पर है. ७० प्रतिसत बच्चे आज भी पैदा होते ही मर जाते है. जो बच जाते है वह कुपोषण , भूख, प्राकृतिक आपदा आदि से असमय काल के ग्रास बन जाते है.
वन राजियोँ के निवास स्थान मुख्या सदका से १५ से २५ किलोमीटर दूर है. मुख्यधारा से कटे होने के कारंद ये मूलभूत सुविधाओं बिजली, पानी, सड़क से कोसों दूर है. सरकार द्वारा कोई ध्यान न देने के कारण वनराजी अपने अस्तित्व को बचने के लिए ख़ुद से ही संघर्ष कर रहे है. आज भी कई वनरावत परिवार गुफाओं में निवास करते देखे गए है.
वन राजियोँ में शिक्षा व जनजागरुकता का पूर्णतया अभावा है. वन राजियोँ का कोई भी बच्चा उच्चा सिक्षा ग्रहण नही कर पाया है. जनजागरुकता के अभाव में शोषण, उत्पीडन अपने चरम पर है. मुख्यधारा से कटे होने के कारण ये कभी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नही करते है.
आधुनिक युग में वन रावातोँ के विलुप्ति का प्रमुख कारण बिना अधययन के सरकारी योजनाओ का क्रियान्वयन करना है. वनराजी जनजाति परंपरागत रूप से वनों पर निर्भर है. लेकिन जंगलों से अधिकार छिनने के बाद से इनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. जंगल ही इनके समाज, संस्कृति, अर्थाव्यावस्था का प्रमुख हिस्सा है. जंगलों से अधिकार छिनने के बाद इनकों मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई सरकारी व गैर सरकारी योजनाई चलाई गई. अनुकूलन न होने के कारण ये योजनाये धरातल पर नही उतर पाई. आज भी ये अपने को बचने के लिए ख़ुद से संघर्ष कर रहे है. अगर समय रहते कोई कारगर कदम नही उठाई गई तो वह दिन दूर नही जब यह जनजाति इतिहास के पन्नों पर सिमट जायेगी.

इतिहास
इतिहासकर व लेखक वन राजियोँ को किरात वंशीय मानते है, जो मंगोल जाती से सम्बंधित है. वन रावातोँ का कभी पूर्वी हिमालय में साम्राज्य था. किरातार्जुनीय के अनुसार उन्होंने धनुर्धारी अर्जुन को परास्त किया था. लेकिन वन राजियोँ का यह गौरवमयी इतिहास आज खत्म होने की कगार पर है.

giddha



बढ़ते पर्यावार्नीय खतरे से संकट में गिद्दों का अस्तित्व

*ab ab tak darjnon giddo ki prajaati ho gae hai lupt
*गिद्दों ki lupt prajaatiyo ko bachaane ke daawe huae khokhale saabit

लगातार बाद रहे pradushan से pअर्यावरण संकट गहरा गया है. बढते पर्यवार्निया खतरे के संकट से गिद्दों का अस्तित्तव संकट में पड़ गया है. इसी कारण पहाडों पर आने वाले गिद्दोअन व् येअगले की दर्जनों प्रजातियों की संख्या लगातार घटी जा रही है. गिद्दोअन के लगातार घटती संख्या भयंकर संकट की और इशारा कर रही है.
प्रतिवर्ष उच्च व् मध्य हिमालयी क्षेत्रों में गर्मियों व् जादू के महीनों में देसी-विदेसी गिद्दोअन प्रजाति के दर्जनों पक्षी प्रवाश को पहुंचाते हैं. गिद्दोअन प्रजाति में मुखाय्ताया जटायु गिद्दोअन (जिपेतुस बर्बेतुस), येग्य्प्तियाँ गीदड़ (निओफ़्रोने तेर्क्नोप्तेरुस), कला गीदड़ (पेयितेगिपयास मोनेस्तुस), हिमालयन ग्रिफ्फान (जिप्सला हिमालायान्सिस), राज गीदड़ (सर्कोजिप्सुस कलोसुस) व् येअगले प्रजाति के रगड़ उकाब (येअक़ुइल्ल निपल), छोटा जुमिज उकाब (येअक़ुइल्ल रेपेकास), सुनहरा उकाब (येक़ुइल्ल क्रिसेतुस) आदि के सेकारों पक्षी पहरों पर देखे जा सकते हैं. लेकिन बदते पर्यवार्नीय संकट से इनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. परयावार्निय प्रदुसान से प्रतिवर्ष दरजनों गीदड़ मारे जाते हैं.
गीदड़ भोजन श्रंखला में सबसे ऊपर आते हैं. गिद्दोअन के लगातार खत्म होने व् भोजन चक्र में शीर्ष में आने के कारण पारिस्थितिक तंत्र भी गदाबदाने लगा है. इस संकट से निपटने के लिए पुरे विश्व में गिद्दोअन को बचने के लिए अभियान चलाया गया है. लेकिन यह सिर्फ प्रयास भर ही दिखाई दे रहा है.
इसेसग्योअन का मानना है की गिद्दोअन के मरे जाने का सबसे बड़ा कारण दिक्लोफानिक सहित कई दवाई है, जो पशुओं में दर्द निवारक, दूद बदने आदि के लिए प्रयुक्त की जाती है. जब पशु मरता है तो इसको गीदड़ खाते हैं. दुसित मंश खाना गिद्दोअन की मौत का प्रमुख कारण है. गिद्दोअन की लगातार घटी संख्या को देखते हुए इसी दावा के प्रयोग कराने में प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
सरकार द्वारा दिकोफानिक दावा को प्रतिभंधित कर देने के बाद भी इस दवाई का प्रयोग किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप लगातार ग़िद्दोअन की मौत हो रही है. ग़िद्दोअन के मरने का एक कारन प्रयावरण के प्रति जागरूक न होना है. उन्हें जिव जन्तुओं के घटक दुस्परिनाम की कोई जानकारी नही है. पर्वतीय क्षेत्रों पिथोरागढ़, अल्मोरा आधी जिलों में प्रतिवर्ष दर्जनोअ गीदड़ मरे जाते हैं. २००७ में रानीखेत नमक स्थान में ६३ गिद्दा व २००८ में १३ हिमालयी ग़िद्दोअन की मौत जहरीला मांस खाने के कारन मरे गए. यह वह आकडे हैं जो प्रकाश में आए. कई मामले तो प्रकाश में ही नही आते. इसी कारन पहाड़ पर आने वाले ग़िद्दोअन की संख्या में भरी कमी आए है.
ग़िद्दोअन पर सोअध कर रहे गोपाल खत्री ने बताया की गीदड़ विलुप्ति की कगार पर हैं. ग़िद्दोअन की कई प्रजाति आज विलुप्ति के कगार पर है. ग़िद्दोअन की विलुप्ति का प्रमुख कारन प्रयावार्निय प्रदुसान है. अगर समय रहते कोई कारगर कदम नही उठाई गई तो वह दिन दूर नही जब हमे भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना होगा.

गिद्दा प्रजाति
जटायु गीदड़ (जिपेतुस बर्बेतुस),
एग्य्प्तियन गीदड़ (निओफ़्रोने तेर्क्नोप्तेरुस)
काला गीदड़ (पेयितेगिपयास मोनेस्तुस)
हिमालयन ग्रिफ्फां (जिप्सला हिमालायांसिस),
राज गिद्दा (सर्कोजिप्सुस कलोसुस)

एअगले प्रजाति
रगर उकाब (एअक़ुइल्ल निपल)
छोटा जुमिज उकाब (एअक़ुइल्ल रेपेकास)
सुनहरा उकाब (एक़ुइल्ल क्रिसेतुस)

mahasir












महासीर का लुप्त होना, हिमालयी नदियों के ख़त्म होने का संकेत

*अगले ५० वरसों में सूखा जायेगी अदिकांस हिमालयी नदिया
* हिमालयी नदियों में पाई जाने वाली मछ्लियोँ की ४१ प्रजातीय संकटग्रस्त

अवैध सीकर, बेतहासा निर्माण कार्य, प्रयावार्निय कचरा आदि का असर अब समुद्रों, नदियों में पाए जाने वाले जल्चारोँ में भी दिखाई देने लगा है. एक अधययन के अनुसार समुद्र में पाई जाने वाली एक-तिहाई मचलिया ख़त्म हो गई है. इसके दुस्प्रभाव से हिमालयी नदिया भी नही बच्च पाई है. हिमालयी नदियों में मचलियोँ की ४१ प्रजातिया पाई जाती है, लगभग सभी प्रजातीय संकटग्रस्त है. हिमालयी नदियों में सबसे अधिक संकात्ग्रस्त महासीर मचली है. वैज़निकोँ का मानना है की महासीर का लुप्त होना हिमालयी नदियों के ख़त्म होने का संकेत है. अगर लुप्त होती हुई महासीर मछली को बचाया नही गया तो अगले ५० वर्षों में हिमालय से निकलने वाली अदिकंसा नदियाँ भी ख़त्म हो जैगी.
महासीर मछाली प्रायः सभी हिमालयी नदियों में पाई जाती है। यहाँ इसकी दो प्रजातिया पाई जाती है. पहली तोर्टर व दूसरी तोर्पितितोरा महासीर. तोर्टर, तोर्पितितोरा महासीर मछली से चोटी होती है. महासीर मछली सुनहरे पीले रंग की होती है. इसका वजन १५ से ५० किलो व लम्बाई एक फिट से ३ फिट तक होती है. महासीर का प्रजनन काल अप्रैल से सितम्बर तक होता है.आज हिमालयी नदियों से महासीर लगभग समाप्त हो गई है. सरकार द्वारा महासीर मच्चालियोँ के सिकार पर प्रतिबह्धा लगने के बाद भी इसका अवैध शिकार जरी है.
हिमालियोँ मच्चालियोँ मुक्य रूप से महासीर के लुप्त होने का परमुखा कारन बेतहासा अवैध सीकर, मच्चालियाँ पकड़ने के लिए बिस्फोताकाओं का प्रयोग, प्रजनन के समय नदियों से अवैध खनन, बड़े-बड़े बाधाओं का निर्माण आदि है. वैज़निकोँ का मानना है की महासीर का मन्ना है की महासीर का प्रजनन कल अप्रैल से सितम्बर में होता है, प्रजनन के बाद यह अपने अंडे देने नदियों के किनारे, बालू या जादी के पास आते है. लेकिन इस समय नदियों से अवैध खनन भी होता है, जिस से इनके अंडे सुरक्षित नही रह पते और बच्चे नही बच पते. वही बड़े-बड़े बधोँ के निर्माण से महासीर मछलियाँ एक एस्थान से दुसरे एस्थान तक नही जा पते है. मचलिया अपने जीवन कल में प्रजनन के समय अंडे देने के लिए घरे पानी से किनारे की और आते है, बड़े-बड़े बाँधा एस प्रक्रिया में बाधा बनते है. जिस कारण मछलिया अपना वंश नही बड़ा पति है. जो महासीर की विलुप्ति का प्रमुख कारण है.
कुमाओं विस्वविधालय के जिव वैजानिक दा. अस अस पतनी ने बताया की महासीर के ख़त्म होने का कारण पर्यावरण में बरते मानव हस्तक्षेप के साथ विदेसी मच्चालियोँ का हमारी नदियों में प्रवेश करना है. एन विदेसी मच्चालियोँ की प्रजातियोँ में मुख्य रूप से थैमन्गोअन, मिरर कार्प, सिल्वर कार्प आधी प्रमुख है. एन मच्चालियोँ के हिमालयी नदियों में आने से इसका असर महासीर की खाध्य श्रृखला में पड़ा है. थैमंगो जैसे विदेसी प्रजाति की मच्चालियोँ तो महासीर को अपना सीकर बनता है. मत्स्य विसेसगाया व जिव वैजानिक कुमकुम सह ने बताया की महासीर के लुप्त होने का असर जैव विविधता व पारिस्थितिकीय तंत्र पर पड़ रहा है. जिस प्रकार महासीर लुप्त हो रहे है वह भयानक संकट की और एसर कर रहे है. उन्होंने बताया की जहा एक और नदियों का पारिस्थितिकीय तंत्र इससे प्रभावित हो रहा है वही नदियों के सुखाने की प्रक्रिया भी सुरू हो रही है. महासीर मच्चालिया नदियों के जल एस्टर के कम या ज्यादा होने की सूचना भी देते है. महासीर के लुप्त होने का मतलब नदियों का लगातार ख़त्म होना है. अगर समय रहते युध एस्टर पर कार्य नही किया गया तो भयंकर दुस्परिनाम भुघताने परेंगे. राज्य मत्स्य विकास अबिकरण की सदस्य जोयती सह मिश्रा ने बताया की महासीर को बचने के लिए युध एस्टर पर कार्य किए जा रहे है, जल्द ही इसके परिणाम सामने आयेगे.

devalaya




अपना पर्वतीय स्वरुप खोते जा रहे है देवालय

* संस्कृति को सहेजने के लिए मंदिरों को होगा

सहेजना

उत्तराखंड को पुराणों में देवताओं की भूमि कहा गया है, और इसकी पहचान यहाँ के देवालय है. लेकिन आजकल बनने वाले मन्दिर अपना पर्वतीय स्वरुप खोते जा रहे है. पुरानी पहाडी शैली के मंदिरों की जगह अब ईट, मार्बल व ता एल्ससे बने मंदिरों ने ले ली है. देवालायाओं के लगातार बदलते स्वरुप से पहाड़ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पार खतरा मडराने लगा है.
संस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक देवभूमि उत्तराखंड आज अपना स्वरुप खोटी जा रही है. प्रदेश की पहचान यहाँ के मन्दिर है, लकिन आधुनिक समय में वह अपनी पहचाने खोटी जा रही है. आज मंदिरों का स्वरुप विकृत हो गया है. देखा देखि लोग बेतहासा मन्दिर बना रहे है और कही भी देवताओं को इस्थापित कर रहे है. जबकि पहाड़ में मंदिरों की मूल आकृति धर्म विधि पूर्वक, विष्णु धरमोत्तर पूरण और सिल्प्सस्त्र के अनुसार बनाये जाती है.
उत्तराखंड के मन्दिर मुक्यताया पड़ी शैली के, जिनमे नगर शैली की झलक दिखाती है. इनका आकर पिरामिड जैसा होता है. यहाँ के देवालय पत्थारोँ के बनाये जाते थे, पूरे ध्हाचे को बनाना के लिए मिटटी, उरद (एक प्रकार की दल), गोअद, पनीर आदि के मिश्रण का प्रयोग किया जाता था. मंदिर के ऊपर पटल रखा जाता था तथा कभी-कभी धातु का उपयोग भी किया जाता था. लेकिन आज इनकी जगह ईट, टेल्स आदि ने ले ली है. जगह-जगह ऐसे मंदिरों की बढ़ा सी आ गई है. एन मंदिरू का न तो अपना कोई स्वरुप है, न ही महत्वा. आज हर जगह ऐसी मन्दिर बनने की होड़ सी लगी हुई है. मन्दिर बनाना के लिए प्रतिवर्ष लाखों रूपये फुख दिए जाते है. विधायक व संसद तो एन मामलों में लोगों से दो कदम आगे है. वह बिना सोचे लोगों के म्हणत की गाड़ी कमी के करोडों रूपये अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए फुख देते है. लेकिन कोई भी मंदिरों के एअतिहसिक महत्वा व पहाड़ की पहचाने को बचने के लिए प्रयास नही कर रहा. नई पिद्दी के लोग तो तिलेस, ईट से बने मंदिरों को ही अपनी पहचान मानाने लगे है.
हिमालयन सोकिएति फार हेरिटेज एंड आर्ट conjerveson संस्था के निदेसक अनुपम सह ने बताया की पड़ी शैली लुप्त होती जा रही है. कुछ एस्थानोँ में ही अब इस श्हैली के मन्दिर दिखाई देते है. अब गों तक भी यह तिलेस संस्कृति पहुच गई है. अब तो लोग आधुनिक दौर की चकाचोअद में अपनी विरासत खोते जा रहे है. उन्होअने बताया की इस एअतिहसिक धरोहरोँ को बचने के लिए यूधेस्त्तर पर कार्य कराने होगे. बिना सामुदायिक भागीदारी के प्राचीन मंदिरों का अस्तित्वा नही बचाया जा सकता है. कला संस्कृति के संरक्सक अनुपम सह इटली, इंग्लैंड, दक्सिन पूर्वी एशिया के देसों में सास्कृतिक धरोहरोँ व हस्त्शिल्पोँ को बचने का कार्य कर रहे है.

मन्दिर निर्माण में प्रतिवर्ष फुकें जाते है लाखोँ रूपये

आज हर जगह मन्दिर बनने की होड़ लगी हुई है. मन्दिर बनने के लिए प्रतिवर्ष लाखोँ रूपये फुखे जाते है. विधायक व सांसद तो एन मामलों में लोगों से दो कदम आगे है. वह बिना सोचे लोगों की गाड़ी कमी बिना सोच विचार किए अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए फुक देते है. लेकिन कोई भी मंदिरों के एअतिहसिक महत्वा व पहचाने को बचने के लिए कार्य नही कर रहा. नई पीडी के लोग तो तिएल्स के इन मंदिरों को ही अपने पहचान मानाने लगे है.